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चीन-भारत मित्रता, बोधिवृक्ष की तरह


14 October 2016 | By hiadmin | SISU

इस महान अंतर्राष्ट्रीय अवसर को मनाने के लिए आज हम यहाँ इकठ्ठे हुए हैं। इस सुनहले मौके पर, एक हिंदी पढ़ने वाले चीनी विद्यार्थी की तरफ़ से, मैं यहां अपने अनुभव के आधार पर चीन-भारत मित्रता को लेकर भाषण देता हूँ।

भारत-चीन मित्रता का बीज हज़ारों सालों पहले ही बोया गया है और लगभग २००० सालों से भारत और चीन की जनता इस बीज की सींचाई और पोषण करते रहे। इसलिये, वह अब एक ऐसा वृक्ष बन गया, जिस में दोनों देशों की संस्कृतियों और बुद्धियों का समावेश है, एक बोधिवृक्ष की तरह प्राचीन और सुनदर दिख रहा है।

संसार की चार प्राचीनतम सभ्यताएं हैं और इन में से दो सभ्यताएं चीन और भारत की हैं। संपूर्ण विश्व में चाहे ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से या सांस्कृतिक विविधता की दृष्टि से, चीन और भारत के बीच जितनी समानता मिलती है उतनी दूसरे देशों के साथ नहीं मिलती ? और यह समानता एक दिन में नहीं बन जाती, बल्कि लम्बे इतिहास में आदान-प्रदान का परिणाम है। इस तरह के आदान-प्रदान में अनेक  महान व्यक्तियों ने योगदान दिया है और इसलिये उन के नाम लोगों से भूले नहीं जाते। 

लगभग ईसा से १४० वर्ष पूर्व, चीन के “शीहान” राजवंश में झांग कियान (张骞) नामक राज-दूत पहली बार भारत में गया। यहां से भारत और चीन के बीच में सांस्कृतिक व व्यापारिक आदान-प्रदान का उद्घाटन हुआ। तब बौद्ध धर्म का प्रचलन भारत से आकर चीन में शुरू हुआ। बौद्ध धर्म के आने से चीन की संस्कृति भी व्यापक रूप से प्रभावित हुई और चीन की स्थानीय संस्कृति के कुछ प्रभाव भी उन भिक्षुओं के आने-जाने पर भारत में पहुँचे, जिन में ह्येन तसांग का नाम तो आपने ज़रूर सुना होगा। फिर विश्व-युद्ध के समय, भारत के चिकित्सक द्वारकानाथ शांताराम कोटणीस ने चीनी लोगों की बड़ी सहायता की और चीनी लोगों के मन में उन का अमर चरित्र रहा। १९५४ में चीन के प्रधानमंत्री 周恩来 और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच एक महत्वपूर्ण मुलाकात हुई, जिस में पहली बार “शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांत” को प्रस्तुत किये गए। दूसरी तरफ़ से, उस समय नेहरू जी चार शब्द बोले जिन्हें हर एक हिन्दी विद्यार्थी से रटता जाता है, वो है- “हिन्दी चीनी भाई भाई”। साहित्यिक रूप में तो भारतीय महान कवि रविंद्रनाथ ठाकूर और चीनी विद्वान 季羡林 दोनों के नाम सब से आगे आ जाते हैं। ची शिआनलिन को भारतीय अध्यन में योगदान की वजह से पद्म भूषण पुरस्कार भी दिया गया। इसलिये जब से भारत-चीन मित्रता का बीज बोया गया, तब से वह उगता रहा।

तो फिर आज का हाल कैसा है? आज न केवल राज-दूतों या प्रधानमंत्रियों के बीच ही संवाद चल रहा है, बल्कि दोनों देशों के साधारण लोगों के बीच भी चलता है। हां इस की एक वजह शायद यह है कि विदेश जाने के बदले वेब से ही संवाद किया जा सकता है न? फिर भी, एक देश की सच्ची संसकृति को सीखने के लिये आज के जवान उस देश में स्वयं जाकर भी देखते हैं। 

पिछले साल मैं और अपने सहपाठियों के साथ भारत में हिन्दी पढऩे गये। हालांकि हमारा विद्यालय वर्धा नामक एक छोटे से जिले में है, पर वहां के लोग हम चीनी छात्रों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार करते हैं।  वहां रहने के ८ महिनों में, मालूम होता है कि मैंने भारत-चीन मित्रता के बोधिवृक्ष की वास्तविक आकृति देखी हो । मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि अलग संस्कृतियां जब एक दूसरे से टकराएं तो नहीं कि झगड़ा उत्पन्न हुआ बल्कि सामंजस्य उत्पन्न हुआ हो।

 जब हम भारत में थे हम भारतीय त्योहार मनाते थे और अपने त्योहारों के बारे में बताते भी थे। चीन का वसंत त्योहार तो बहुत भारतीय लोगों से जाना गया होगा, और भारत में होली मनाने का रूप, विशेषतः रंगों का प्रयोग, चीन में भी कहीं कहीं इस का अनुकरण देखा जाता है। 

जब हम भारत में थे, हम अलग अलग जगहों पर यात्रा करने गए, तो हमने देखा कि इन दृश्यों पर चीनी प्रटकों की संख्या बहुत बड़ी थी। इस से और आश्चर्य  की बात यह है कि वहां के कुछ दुकानदार चीनी बोलने की कोशिश भी करते थे। यात्रा करना एक देश को जानने के लिये सब से साक्षात रूप होता होगा।

जब हम भारत में थे, हम कई हिन्दी फिल्में देखीं और पता चला कि भारतीय लोगों को जेकी च्येन की फिल्म को देखने की बड़ी रुची है। आजकल चीन के सिनेमा में भी भारतीय फिल्में पहले से कहीं ज़्यादा आ गयीं और मेरी जानकारी में बहुत नौजवान वेब के जरिये भारतीय धारावाहिक भी देखते हैं। वेब की सुविधा से दोनों देशों के लोग एक दूसरे के और निकट आ रहे हैं। 

जब हम भारत में थे, हम भारतीय खाना खाते थे तो कभी चीनी भोजन बनाते थे। एक दिलचस्प बात यह थी कि जब हम विद्यालय के रसोईघर में बार बार एक ही चीनी डिश बनाते थे,वो है “टमाटो अंडा फ़्राई”, तो वहां के chef ने भी यह डिश बनाने को सिख लिया और इस को भारतीय भोजन के साथ हमें परोसा, कितना सुन्दर चित्र था। हमारे लिये एक दूसरी आश्चर्य बात यह थी कि भारत के जहां जहां भी गए, तो सारे जहां एक चीनी भोजन ज़रूर मिलता है, वो है 炒面 यानी Chinese noodle। जैसे भारत में चीनी भोजन पसंद करने वाले बढ़ रहे हैं, उसी तरह चीन में लोग भी भारतीय भोजन से आकर्षित होने जा रहे हैं। शांघाई में हमारे विश्वविद्यालय के आसपास ही एक भारतीय भोजन restaurant है, जहां हम भारतीय स्वाद की याद में अक्सर जाते हैं। इसलिए भोजन के आदान-प्रदान में हमें बहुत कुछ सफलता मिली है तो क्या यह भारत-चीन मित्रता सुधर रहे का एक नया प्रमाण भी होगा नहीं?। 

इसलिये मेरे ख्याल से आज भारत-चीन मित्रता का वृक्ष बड़ा है, समृद्ध है, बोधिवृक्ष की तरह। पर इतना ही नहीं, क्योंकि यह अभी भी उग रहा है, अवश्य, भविष्य में यह बोधिवृक्ष और समृद्ध और हरा-भरा बनेगा। परंतु वास्तव में देखें तो दोनों देशों के लोगों के बीच अभी भी बाधाएं हैं, एक दूसरे को जानने के लिये। सांस्कृतिक भिन्नता से ज्यादा बड़ी समस्या है भाषा की। 

मुझे लगता है कि भाषा एक पुल है जिसके माध्यम से हम एक देश से दूसरे देश तक या एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता तक पहुँच सकते हैं। एक अजीब बात यह है कि कभी कभी भारतीय लोग मुझ से पूछते हैं कि आप क्यों हिंदी पढ़ते हैं? या कभी मुझे ऐसा भारतीय व्यक्ति मिलता है, जो कहता है: भैया आप अंग्रेज़ी बोल सकते हैं, मुझे अंग्रेज़ी आती है। मेरा जवाब तो हमेशा यह होता, कि मुझे हिन्दी पसंद है, भारतीय संस्कृति पसंद है। और अगर भविष्य को लेकर उत्तर दूं तो मैं गर्व से कहुंगा, भारत-चीन मित्रता के विकास में अपने योगदान देना चाहता हूँ। मैंने देखा कि अब भारत में भी बहुत ज़्यादा लोग चीनी भाषा सीख रहे हैं। भारत-चीन मित्रता अगर एक बराबर भाषिक आधार पर स्थित हो सके तो जरूर एक नये स्तर पर पहुंच जाए। इसलिए मेरे ख्याल में भारत-चीन मित्रता को सुधारने में भाषा के पुल की बड़ी भूमिका होगी।

भारत-चीन मित्रता का विकास पुरे ऐश्या, यहां तक कि, पूरे संसार की शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिए अत्यंद महत्वपूर्ण है। अगर हम सांस्कृतिक पानी और भाषिक खाद से इस बोधिवृक्ष को पोषण दें, तो इस की भावी आकृति जरूर शानदार हो जाएगी। (Lin Wenzhi/कमलशील)

 
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